चुनावों में मुस्लिमों का प्रतिनिधित्व पहले की तुलना मे अब कम क्यों होता जा रहा है?

चुनावों में मुस्लिमों का प्रतिनिधित्व पहले की तुलना मे अब कम क्यों होता जा रहा है?

मिल्लत टाइम्स |नई दिल्ली|देश में मुसलमानों की आबादी तो वैसे अच्छी-खासी है। लेकिन, चुनावी राजनीति में यह सिर्फ वोट बैंक की तरह दिखाई दे रही है। प्रतिनिधित्व के नाम पर इस तबके का मामूली दखल है। वर्तमान में चल रहे 5 राज्यों के चुनावों पर गौर करें तो सभी राज्यों में मुसलमान प्रत्याशियों की संख्या बेहद कम है। इसके क्रम का अध्ययन करेंगे तो पता चलेगा कि अर्से से गिने-चुने मुसलमान उम्मीदवार ही चुनाव में भाग लेते रहे हैं और उनमें से भी कम चुनाव जीतने में कामयाब हो पाते हैं। मध्य प्रदेश और राजस्थान जैसे बड़े राज्यों की बात करें तो इन राज्यों में मुसलमान वोटरों की संख्या तकरीबन 10 फीसदी के आसपास है। लेकिन, चुनावी राजनीति में दखल बहुत ही मामूली है। मध्य प्रदेश और राजस्थान विधानसभा में मुसलमान विधायकों की संख्या मुश्किल से 10 के करीब पहुंच पायी है। वर्ना औसतन इनकी संख्या 5 के नीचे ही रही है। इन राज्यों के अलावा उत्तर प्रदेश और बिहार के सियासी गणित पर भी नजर दौड़ाएंगे तो मुसलमानों का प्रतिनिधित्व काफी कम ही है और कमोवेश पूरे देश में यही स्थिति है।

वर्तमान में चुनावी परिदृश्य को ध्यान में रखते हुए मध्य प्रदेश की बात की जाए तो यहां के 4.94 करोड़ मतदाताओं में तकरीबन 50 लाख मुसलमान वोटर हैं।र्तमान में चुनावी परिदृश्य को ध्यान में रखते हुए मध्य प्रदेश की बात की जाए तो यहां के 4.94 करोड़ मतदाताओं में तकरीबन 50 लाख मुसलमान वोटर हैं। यह समुदाय भोपाल और मालवा-निमाड़ की करीब-करीब 40 सीटों पर दखल रखता है। 60 के दशक में इन इलाकों में मुस्लिम प्रतिनिधित्व ठीक-ठाक था। लेकिन, 1972 के बाद से मुस्लिम विधायकों की संख्या में कमी बनी रही। 1972 के बाद से इन क्षेत्रों में मुस्लिम विधायकों की संख्या 5 से ज्यादा नहीं हो सकी। बीते 15 सालों से कांग्रेस के सिर्फ आरिफ अकील ही विधानसभा में मौजूदगी दर्ज कराए हुए हैं। हालांकि, बीजेपी ने भी मुस्लिम उम्मीदवारों पर अपना दांव पहले खेला था। लेकिन, 1985 और 1990 में बीजेपी के टिकट से सिर्फ एक-एक प्रत्याशी ही जीत सके। 1993 में बीजेपी के मुस्लिम उम्मीदवार की तो जमानत जब्त हो गयी थी। 2013 में बीजेपी ने आरिफ बेग को टिकट दिया था। लेकिन, वह कांग्रेस के आरिफ अकील से हार गए।

वहीं, राजस्थान में भी मुसलमानों की स्थिति मध्य प्रदेश से कोई ख़ास जुदा नहीं है। यहां भी तकरीबन 9.1 फीसदी मुसलमान वोटर हैं। जैसलमेर, अलवर, भरतपुर और नागौर में इनकी अच्छी-खासी संख्या बल है। अक्सर चुनावों में यहां पर मुस्लिम मतदाता निर्णायक भूमिका में रहते हैं। लेकिन, सूमचे राजस्थान में इस समुदाय से आने वाले उम्मीदवार सिर्फ 1998 और 2008 में ही अच्छा प्रदर्शन कर पाए हैं। 1998 में पहली बार मुस्लिम उम्मीदवारों की जीत की संख्या अच्छी थी। यहां से 10 उम्मीदवार विजयी हुए थे।
वहीं 1998 में पहली 12 उम्मीदवारों को जीत नसीब हुई थी। वर्ना हमेशा अल्पसंख्यक समुदाय से जुड़े उम्मीदवार कुछ ख़ास प्रदर्शन नहीं कर पाए हैं।

पूरे देश में मुसलमान विधायक या सांसदों की संख्या कम क्यों है यह सवाल अर्से से उठता रहा है। हालांकि, राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि भारत की चुनावी राजनीति में मुद्दों से ज्यादा जाति और धर्म हावी रहते हैं। चुनाव में विनिबिलिटी को आगे रखा जाता है। जिस उम्मीदवार के जीतने की संभावना ज्यादा होगी राजनीतिक दल उसी पर दांव खेलते हैं। इसके अलावा बीते कुछ सालों में गैर-बीजेपी पार्टियां भी सॉफ्ट हिंदुत्व की ओर रुख की हैं। क्योंकि, राजस्थान और मध्य प्रदेश समेत 5 राज्यों में होने वाले चुनावों में मुसलमान वोटरों के मुद्दों पर गैर-बीजेपी पार्टियों ने कुछ खास गौर नहीं फरमाया है। मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस के अध्यक्ष राहुल गांधी भी अपनी छवि सॉफ्ट हिंदुत्व वाली बना रहे हैं। यही नतीजा है कि बीजेपी ने यूपी मॉडल को अपनाते हुए राजस्थान से अभी तक एक भी मुस्लिम उम्मीदवार का टिकट फाइनल नहीं किया है। जबकि, कांग्रेस ने भी उम्मीद के मुताबिक मुस्लिम उम्मीदवारों पर दांव नहीं खेला है।


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