9 अक्तूबर 2017,न्यूज़ वेबसाइट ‘द वायर’ की स्टोरी में दावा किया गया है कि अमित शाह के बेटे जय अमित शाह की कंपनी का कारोबार 2014-15 में 50 हज़ार रुपए का था, वो अगले ही साल 80 करोड़ रुपए तक पहुंच गया. ये वही साल है जब नरेंद्र मोदी भारत के प्रधानमंत्री बने थे.
इस दावे के मुताबिक़ अगर एक वरिष्ठ नेता और भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष के बेटे को कारोबार में इतना इज़ाफ़ा हो जाए, तो ये स्टोरी तो बनती है.
अगर इसमें टिप्पणी करनी थी तो बीजेपी को इस मामले के सभी तथ्य रिलीज़ कर देने चाहिए. इस स्टोरी में बीजेपी और जिसने लोन दिया, उन सबका पक्ष भी आ गया होता, अगर उन लोगों ने अपना पक्ष रखा होता.
विज्ञापन
हां ये बात अपनी जगह सही है कि बाक़ी मीडिया इस ख़बर पर रिपोर्ट नहीं कर रही है तो ये नई बात नहीं है. पिछले तीन-चार साल में हमने देखा है कि एक तरह का गठजोड़ बन गया है जिसमें मास मीडिया की अपनी कोई भूमिका नहीं है.
कौन हैं देश के सबसे ताक़तवर नेता के बेटे जय शाह?
‘वेबसाइट के संपादक पर 100 करोड़ का केस करेंगे’
‘पता चल गया आख़िर कहां छिपा बैठा है विकास’
कॉरपोरेट इंटरेस्ट के ज़रिए, मीडिया के स्वामित्व के ज़रिए सीधे तौर पर सरकार मीडिया का कंटेंट नियंत्रित कर रही है. ये कोई महज़ अफ़वाह नहीं है. कई बड़े मीडिया संस्थानों को दबाव में काम करना पड़ रहा है.
कितनी दबाव में है मीडिया?
वहीं दूसरी ओर छोटे मीडिया संस्थान, अपने सीमित संसाधनों में सरकार और कॉरपोरेट के ख़िलाफ़ रिपोर्टिंग करने का साहस दिखा रहे हैं तो उस पर क्रिमिनिल डिफ़ेमेशन का भारी भरकम दावा ठोका जा रहा है. कोशिश यही है कि पत्रकारों और मीडिया संस्थानों को डरा-धमका कर चुप रखा जाए.
अब देखिए जय अमित शाह के बचाव में केंद्र सरकार के मंत्री प्रेस कॉन्फ़्रेंस कर रहे हैं. ये कांग्रेस के वक्त भी हुआ था. तब केंद्रीय मंत्रियों को रॉर्बट वाड्रा के बचाव में उतरना होता था. रॉबर्ट वाड्रा के समय कांग्रेस ने जो बचाव किया था, वो भी बेशर्मी थी.
अपने बेटे और बहू के साथ अमित शाह
कांग्रेस के ज़माने में जो शुरुआत हुई थी, वो अब आगे बढ़ चुकी है. अब बेशर्मी की हद को पार कर लिया गया है. ये नहीं कहा जा सकता है कि उस दौर में जो हुआ था वो सही था और अब जो हो रहा है वो ग़लत है.
हालांकि इस विवाद की तुलना रॉबर्ट वाड्रा से जुड़े विवाद से की जा रही है. लेकिन दोनों समय की सरकारों के समय की तुलना, कुछ वैसी है ही जैसी लोग 1984 और 2002 के दंगों के बीच में करते हैं.
तू-तू, मैं-मैं वाली स्थिति है, लेकिन उस वक्त देखिए कि मीडिया ने रॉर्बट वाड्रा पर लगे आरोपों को कितना कवर किया गया था, कितनी जगह दी गई थी. लेकिन अब वही मीडिया दोहरा रवैया अपना रही है.
कांग्रेस सरकार के समय जब प्रेस कॉन्फ़्रेंस हुई थी, भ्रष्टाचार की रिपोर्टें निकली थीं तो उस पर उसी मीडिया ने खुलकर लिखा था जिसे आज प्रेस्टीट्यूट कहा जा रहा है. लेकिन वही मीडिया जब बीजेपी के ख़िलाफ़ लिख रही है तो उस पर आरोप लगाया जा रहा है. उसकी ट्रोलिंग की जा रही है.
लगातार बढ़ता ख़तरा
ज़ाहिर है हम जिस दौर में हैं उसमें मीडिया और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर ख़तरा लगातार बढ़ता दिख रहा है और ये ख़तरा बहुत बड़ा है.
ऐसा भी नहीं है कि ये ख़तरा केवल 2014 में शुरू हुआ था. ये ख़तरा तो उससे काफ़ी पहले से है. ये ख़तरा हमारे सामने स्ट्रक्चरल तौर पर कहीं ज्यादा गंभीर है.
जो मीडिया चलाते हैं, बड़े-बड़े कॉरपोरेट हैं, जिनके बिज़नेस इंटरेस्ट हैं- वो सरकार से मैनिप्यूलेट हो सकते हैं.
जिस तरह मीडिया और कॉरपोरेट का गठजोड़ पिछले 25-30 सालों में बढ़ा है, उसका मौजूदा सरकार ने किसी और सरकार की तुलना में, केवल अपने हित में बेहतरीन इस्तेमाल भर किया है.
इन सबका असर देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था पर दिख रहा है. ये असर पहले भी दिखता था, अब ज़्यादा दिख रहा है.
(इस पोस्ट को ज्यादा से ज्यादा शेयर करे)
Discover more from Millat Times
Subscribe to get the latest posts sent to your email.