भारतीय सेना प्रमुख लोकतांत्रिक नियंत्रण रेखा से पार!

भारतीय सेना प्रमुख लोकतांत्रिक नियंत्रण रेखा से पार!

एम बुरहानुद्दीन कास्मी

भारतीय सेना के चीफ जनरल बिपिन रावत ने 21 फरवरी को राजनीतिक दलों पर टिप्पणी कर के देश में एक अनावश्यक तूफान खड़ा कर दिया है। मौलाना बदरुद्दीन अजमल की लीडरशिप मैं चलने वाली आल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (AIUDF) असम में एक लोकप्रिय राजनीतिक दल हैं। जनरल बिपिन रावत ने दावा किया है कि ए आई यू डी एफ ने भारतीय जनता पार्टी से भी तेज़ प्रगति की है। चूंकि रावत बांग्लादेशी घुसपैठ के बारे में बात कर रहे थे, इसलिए यह समझना आसान होजाता है की ए आई यू डी एफ ने उनके विचार में कथित घुसपैठी के चलते प्रगति की है।

इस अवसर पर सैनिक प्रमुख ने निश्चित रूप से नागरिक शासन और सैन्य सेवाओं के बीच लोकतांत्रिक सीमा पार कर लिया है। उनकी टिप्पणियों को मीडिया और भारतीय थिंक टैंक ने  सकारात्मक तरीके से स्वीकार नहीं किया। इसके बाद देश के हर कोने से तीखे प्रक्रियाओं की एक श्रृंखला जारी हो गया, क्योंकि भारत दुनिया के सबसे मजबूत लोकतांत्रिक देशों में से एक है, जहां पाकिस्तान, म्यांमार और चीन जैसे पड़ोसी देशों के खिलाफ सैन्य और नागरिक राजनीति का दायरा स्पष्ट रूप से अलग है और यहाँ लोकतांत्रिक कड़ाई से लागू भी होता है।

ऑनलाइन समाचार पोर्टल स्क्रॉल डॉट, एक विस्तृत लेख में निम्नलिखित बात लिखी है:

जनरल बिपिन रावत ने कथित घुसपैठ को “लेबेन्स्रॉम” का एक प्रक्रिया क़रार दिया है “लेबेन्स्रॉम” एक जर्मन शब्द है जिसका अर्थ है “आवास के लायक स्थान”। इस का मतलब वो सिद्धांत है जिसको जर्मन नाजियों ने क्षेत्रीय विस्तार के लिए उपयोग किया था। इसी पर बस नहीं बल्कि जनरल बिपिन रावत ने बांग्लादेशी घुसपैठ के लिए पाकिस्तान और चीन को दोषी ठहराया है।

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लेबेन्स्रॉम, चीन, बांग्लादेश, पाकिस्तान और ए आई यू डी एफ—इसमें बहुत सी बातें छिपी हुई हैं। लेकिन जो कहा गया है उससे ज्यादा महत्वपूर्ण ये है की वो किसने कहा है? भारतीय सेना प्रमुख का भारत के एक राजनीतिक दल पर टिप्पणी करना या भारत के पड़ोसी देशों की विदेश नीति के बारे में कुछ भी कहना असामान्य है। दुर्भाग्य से यह एक एकलोता घटना नहीं है बल्कि यह भारतीय सेनाओं की लम्बे राजनीति की एक श्रृंखला है। बढ़ती प्रवृत्ति यह है कि सेना एक युध शक्ति होने के बजाय सार्वजनिक बहस का हिस्सा बन गई है। हालांकि, यह किसी भी लोकतंत्र के लिए चिंता का विशे हो सकती है जिसमें राजनीति जनता के दायरे में आती है। ”

ए आई यू डी एफ के राजनीतिक प्रतिद्वंदी और असम के पूर्व मुख्य मंत्री तरुण गगोई ने भी मौलाना बद्रुद्दीन अजमल के उभरते हुए राजनीतिक दल पर जनरल बिपिन रावत की टिप्पणी की आलोचना करते हुए कहा कि राजनीतिक दलों पर टिप्पणी की प्रक्रिया में किसी भी सेना प्रमुख को शामिल नहीं होना चाहिए।

ए एन आई ने गोगाई का बयान इसतरह दर्ज किया है: “आजादी के बाद से हमने किसी भी सैन्य प्रमुख को राजनीतिक दलों पर टिप्पणी करते हुए नहीं देखा है। सेना की मुख्य जिम्मेदारी देश की अखंडता को बनाए रखना और दुश्मनों के किसी भी हमले को नाकाम करना है। “उन्होंने ये भी कहा की ।” राजनीतिक मामलों पर नजर रखना सेना का कार्य नहीं है। सेवानिवृत्ति के बाद, सेना के किसी भी प्रमुख को पांच साल तक राजनीति में भाग लेने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए। हाँ पांच साल बाद वो ये काम करसकते हैं।”

इंडियन एक्सप्रेस के अनुसार आल इंडिया मजलिस इत्तिहादुल मुसलमीन के अध्यक्ष और  हैदराबाद से सांसद असदुद्दीन ओवैसी ने भी सेना प्रमुख के वक्तव्य की आलोचना करते हुए कहा है कि किसी भी राजनैतिक पार्टी पर टिप्पणी करना उनका काम नहीं है।

 

ए आई यू डी एफ के अध्यक्ष और धुबरी से सांसद मौलाना बद्रुद्दीन अजमल ने जनरल के गैर ज़िम्मेदाराना बयान पर मजबूत प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा कि सेना प्रमुख का राजनीति में कूदना बेहद दुखदायक है। उनहोंने कहा की यह सेना प्रमुख की चिंता का कारण क्यों है कि लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष मूल्यों पर आधारित एक राजनीतिक दल भाजपा की तुलना में तेजी से उभर रहा है? मौलाना ने सोशल मीडिया और ट्विटर पर अपने पोस्ट मैं कहा है कि ” विकल्प के रूप मैं ए आई यू डी एफ और आप जैसी राजनीतिक दल उभर रहे हैं, इसके लिए  बड़ी पार्टियों का खराब प्रदर्शन ज़म्मेदार है।  किया इस तरह की टिप्पणियों से सैन्य प्रमुख राजनीति में कूद नहीं रहे हैं जो संविधान द्वारा निर्धारित किए गए दायरे से बाहर  है? ”

तथ्य के हिसाब से जनरल रावत बिल्कुल गलत हैं

मुसलमानों के नेतृत्व में एक राजनीतिक दल का तेज विकास को बांग्लादेशी से “योजना बंद”  तरीके से मुसलमानों के घुसपैठ को जोड़ कर जनरल रावत ने ज़रूरत से ज़ियादा चिंता व्यक्त किया है और उसको देश की अखंडता से संबंधित एक ठोस समस्या बना कर पेश करने का जो प्रयास किया है वो तथ्य के हिसाब से बिल्कुल गलत है।  असम की 3.12 करोड़ जनसंख्या में 1.06 करोड़ मुसलमान हैं, जो कि कुल जनसंख्या का 34.22% है। 2011 की जनगणना के मुताबिक, असम के 32 जिलों में लगभग 9 में मुसलमान बहुसंख्यक हैं। हिंदू की तुलना में मुस्लिम अनुपात में अधिक इज़ाफ़ा हुआ है, लेकिन इसी अवधि के दौरान उसी राज्य में अनुसूचित जनजाति और अनुसूचित जाति के साथ तुलना करते समय उनकी विकास दर कम है।

इस प्रकार यह मुस्लिम विकास दर सामान्य है; यह उचित शिक्षा, गरीबी और मुसलमानों के बीच बेहतर प्रजनन दर  के कारण है; और पड़ोसी बांग्लादेश के लोगों के किसी भी कानूनी या अवैध घुसपैठ के कारण नहीं। इस तथ्य को गुवाहाटी विश्वविद्यालय के आंकड़ों के भूतपूर्व प्रोफेसर अब्दु मन्नान ने अपनी पुस्तक  “Infiltration: Genesis of Assam Movement”  मैं उचित सबूत के साथ स्थापित किया है।

1971 और 1991 के बीच मुस्लिमों की अखिल भारतीय विकास दर 71.47% थी जो असम के मुसलमानों की इसी अवधि में विकास दर 77.42% की तुलना में सिर्फ थोड़ी ही कम। असम में इसी अवधि में हिंदुओं की विकास दर 42.00%, अनुसूचित जनजाति की विकास दर  78.91% और अनुसूचित जाति की विकास दर 81.84%, इस हिसाब से आबादी में मुस्लिम विकास दर तीन नंबर पर रही। क्या अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के समुदायों के ‘अतिरिक्त’ संख्या में भी बांग्लादेश से घुसपैठी आ गए थे?

उल्लेखनीय रूप से 1 9 71 से 1 99 1 की अवधि के दौरान भारत के कुछ अन्य राज्यों में मुसलमानों का विकास दर असम की तुलना में बेहतर  है। उदाहरण के लिए, 1997  और 1991के बीच  मुस्लिम वृद्धि दर हिमाचल प्रदेश में  77.64% , महाराष्ट्र में 80.15%, मध्य प्रदेश में 80.76%, हरियाणा में 88.36%, राजस्थान में यह 98.2 9% थी और पंजाब में यह 110.32% थी। क्या इन सभी उत्तर और मध्य भारतीय राज्यों में मुसलमान भी ‘अवैध रूप से’ बांग्लादेश से घुसपैठ करके आ गए थे?

असम में असामान्य मुस्लिम जनसंख्या के लिए रोना एक छल और धोका है। बार बार इस वास्तविकता का भंडा फोड़ा जा चूका है, लेकिन राजनीतिक ताकत जो इसे ध्रुवीकरण को उपकरण के रूप में उपयुक्त पाते हैं, वह इस मुद्दे को प्रचार सामग्री के रूप में पेश करते हैं। हर हाल मैं एक सेना के जनरल को ऐसे राजनीतिक रूप से गर्म मुद्दे पर किसी भी सार्वजनिक बयानबाजी से बचना चाहिए था।

आंकड़ों में ए आई यू डी एफ का उदय

2 अक्टूबर 2005 को  आल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट का गठन मौलाना बद्रुद्दीन अजमल के नेतृत्व मैं हुआ था। 2006 असम विधानसभा चुनाव इस पार्टी की पहली चुनावी लड़ाई थी जहां कांग्रेस ने 53 सीटों के साथ राज्य जीता, वह 120 में लड़े और उनको 31.08% वोट मिले, भाजपा को 125 में से 10 सीटों पर जीत हासिल हुई और 11.98% वोट मिले और ए आई यू डी एफ  ने 69 सीटों में से 10 सीटें जीतीं  9.03% वोट शेयर के साथ। असम में 126 विधानसभा सीट हैं।

 

2011 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने फिर से राज्य को निर्णायक रूप से 126 में से 78 सीटों पर जीत हासिल करके अपने क़ब्ज़े मैं किया, जिसमें 39.3 9% वोट शेयर उन्हें मिले। बीजेपी ने 120 में से सिर्फ 05 में ही जीत दर्ज की जिनका वोट शेयर 11.47% था। और ए आई यू डी एफ ने 78 में से 18 में जीत हासिल की, जिसमें उनका 12.57% वोट शेयर था।

2016 के असम विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने पहली बार 89 में से 60 सीटों पर जीत हासिल कर के राज्य पर कब्ज़ा जमाया, जिसमें उनके 29 .51% वोट शेयर थे। कांग्रेस 122 में से सिर्फ 26 में सिमट कर रह गई, जिसमें उनके 30.96% वोट शेयर थे। और ए आई यू डी एफ भी 18 सीटों से 13 सीटों पर आगई, जिसमें उनके 13.05% वोट शेयर थे।

असम में कुल 14 लोकसभा सीटें हैं। 2009 में आम चुनाव में कांग्रेस 7, भाजपा 4 और ए आई यू डी एफ के एक सांसद जीते और पहली बार मौलाना अजमल को संसद भिजा। 2014 के आम चुनाव में भाजपा ने 7, कांग्रेस 3 और ए आई यू डी एफ ने 3 सीटें हासिल किं। ए आई यू डी एफ के मौजूदा तीन सांसद मौलाना बद्रुद्दीन अजमल, जो धुबरी से दोबारह जीते, बारपेटा से उनके छोटे भाई श्री सिराजुद्दीन अजमल और करीमगंज लोकसभा निर्वाचन क्षेत्रों से श्री राधे शियम बिस्वास हैं।

यहां एक स्कूल का लड़का भी उपरोक्त आंकड़े को सामने रखते हुए असम में ए आई यू डी एफ  के राजनीतिक उत्थान की तुलना भाजपा के मुक़ाबले मैं आसानी से कर सकता है। क्या एआईयूडीएफ के कुछ मतदाता 2011 के चुनाव के बाद बांग्लादेश भाग गए और 2016 में वोटों डालने के लिए वापस नहीं लौटे? ये सवाल बकवास लग सकता है, लेकिन फिर कैसे वर्दी में एक गंभीर आदमी ने सार्वजनिक प्लेटफॉर्म पर इस तरह के तर्क को शरू कर दिया जिस से अवाम मैं बेचैनी फैल गई!

असम में मुसलमान 34% से अधिक हैं और ए आई यू डी एफ को कुल मुस्लिम आबादी में से आधे से भी कम का वोट मिला जो की केवल 13%  है, यह भी इसके बाद जब की  माना जाता है कि केवल मुसलमान ही ए आई यू डी एफ के मतदाता हैं ये बात भी स्पष्ट रूप से गलत है। इस पार्टी के पास असमिया समाज के सभी वर्गों के काफी मतदाता हैं; बेशक, मुसलमान इसका प्रमुख हिस्सा हैं। कार्यकारी अध्यक्ष से एम पी, विधायक, पार्टी के अधिकारियों की सूची से ये सब साबित है। मुसलमानों और गैर-मुस्लिम, अनुसूचित जनजाति, अनुसूचित जाति, पुरुष और महिला सभी सूची में हैं। अब एक बुद्धिमान आदमी इतना ही कह सकता है की आर्मी जनरल की टिप्पणी अनुचित है। यह एक परेशानी को जनम देने वाली बात है,  किसी भी लोकतंत्र के लिए सैन्यवाद घातक है,  राजनीति सिर्फ एयर सिर्फ विचारों की प्रतिस्पर्धा पर आधारित होना चाहिए।

बीजेपी और एआईयूडीएफ राजनीतिक दल हैं और वो लोकतांत्रिक लड़ाइयों में जीतें या हारें सेना को उसमें टांग नहीं डालना चाहिए। हाथों मैं बंदूक लिए लोगों का काम  राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभान है–राजनीति में उनका प्रवेश अपरिहार्य है। उदाहरण के लिए पाकिस्तान को ले लीजिए जो बनने के बाद से तक़रीबन आधे समय तक सेना द्वारा शासित हुआ है। आज भी पाकिस्तान में व्यापक रूप से यह स्वीकार किया जाता है कि सेना का शासन–और अगर अधिक व्यापक रूप से कहा जाए तो सैन्यवाद ने उस देश को बहुत पीछे कर दिया है, वहीँ दूसरे ओर गंभीर लोकतांत्रिक प्रथाओं ने भारत की प्रगति में काफी मदद की है। पाकिस्तान जिस जाल मैं फंसा है उस जाल से बचने के लिए भारत और उसकी सेना को सावधान रहना होगा। हम अपने देश को चीन या म्यांमार बनने की भी अनुमति नहीं दे सकते हैं।


लेखक एम बुरहानुद्दीन कास्मी मुंबई बेस्ड असमिया नागरिक हैं और ईस्टर्न क्रिसेंट मैगज़ीन के संपादक है।


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