हज़ारों दलित, मुसलमान एवं पिछड़े समाज के लोगों का विगत एक साल में फ़र्ज़ी एनकाउंटर किया गया जिसमें से लगभग 66 लोगों को एनकाउंटर में मार दिया गया, पर ये चर्चा का विषय तक नहीं बन पाई, कहीं कोई ख़बर तक नहीं बनी। शायद इस मुल्क में इनके लिए कोई सहानुभूति तक नहीं रखता, उलटा जश्न मनाने वाले हर गली और हर चौराहों पे मिल जाएँगे।
ग़रीब, मज़लूम, दबे-कुचले हुए लोगों को मारना शायद इस व्यवस्था के लिए वीरता का काम है। मीडिया की नज़र में ये ग़रीब लोग खूंखार अपराधी हैं। पर आज विवेक तिवारी की हत्या के उपरांत मीडिया के शब्द बदल गए, समाज की सोच बदल गई। कानून व्यवस्था की दुहाई देने वाले आज प्रशासन पे सवाल खड़ा कर रहे हैं।
विवेक तिवारी की हत्या ने सभी को हिला के रख दिया, होना भी यही चाहिए क्योंकि एक बेगुनाह नागरिक की हत्या हुई है, इनके पक्ष में खड़ा होना राष्ट्र एवं मानवता के साथ खड़ा होना है। लेकिन अफ़सोस के साथ कहना पड़ रहा है कि इस मुल्क में हर इंसान की जान की क़ीमत एक जैसी नहीं है। किसी की मौत पे गली का कुत्ता भी नहीं रोता है तो किसी की मौत पे देश भर में भूचाल आ जाता है। किसी को मारकर प्रमोशन मिलता है तो किसी को मारने पर पूरा कैरियर ख़त्म हो जाता है।
हत्याओं पर ये सेलेक्टिव रवैया राष्ट्र की बुनियाद को खोखला कर रहा है। विवेक तिवारी समेत उन तमाम हज़ारों नागरिकों का दर्द एक है जिनको स्टेट ने अपराधी बता के मार डाला। सभी को न्याय मिलना चाहिए। सभी की हत्या समूचे राष्ट्र का पतन है।
तेजस्वी से क्यों नहीं सीखते अखिलेश
लोकतंत्र में सत्ता पक्ष के साथ साथ विपक्ष का भी मूल्याँकन होना चाहिए। अगर सत्ता पक्ष अराजकता फैला रही है तो कहीं न कहीं विपक्ष की ख़ामोशी इसके लिए ज़िम्मेदार है। विपक्ष मौन होकर इस तरह के जघन्य अपराधों पर अपनी सहमति दे रहा है।
जिस दिन प्रदेश में पहला फ़ेक एंकाउंटर हुआ था उस दिन अगर अखिलेश यादव सड़क पे उतर कर आंदोलन छेड़ देते तो सत्ता में इतनी हिम्मत नहीं कि वो किसी और मज़लूम की हत्या कर पाती। इसलिए प्रांत में हो रही ताबड़तोड़ फ़र्ज़ी एंकाउंटर का दोषी अखिलेश यादव भी हैं। विपक्ष की इस चुप्पी ने पूरे प्रांत को क़ब्रगाह बना डाला। ऐसे विपक्ष के नेताओं को चूड़ियाँ गिफ़्ट करनी चाहिए। जिस तरह से उत्तर प्रदेश में फ़ेक एंकाउंटर हो रहा है अगर उस तरह का एक भी फ़ेक एंकाउंटर बिहार में हुआ होता तो अबतक वहाँ की सरकार गिर चुकी होती। तेजस्वी यादव सड़क पे आकर पूरे प्रांत को बंद कराकर एक उग्र जनांदोलन खड़ा कर देते। पर बबुआ तो अभी भी बबुआ ही हैं। इनको वापस ऑस्ट्रेलिया चले जाना चाहिए।
गुस्सा तब क्यों नहीं आता
गुस्सा फेक एनकाउंटर को लेकर नहीं है, गुस्सा ‘तिवारी जी का फेक एनकाउंटर’ होने की वजह से है। अगर फेक एनकाउंटर पर गुस्सा होता तो एक हफ़्ते पहले अलीगढ़ में मारे गए दोनों मजलूमों के प्रति भी संवेदना दिखाई देती। उन सैकड़ों लोगों के प्रति भी संवेदना होती जिन्हें विगत वर्ष के भीतर फ़र्ज़ी तरीके से एनकाउंटर करके मार दिया गया है।
दरअसल इस समाज की सामूहिक चेतना झूठी है। कल किसी अंसारी, गौतम या यादव का फेक एनकाउंटर कर दिया जाएगा तो यही सभ्य समाज जश्न भी मनाएगा। असल हत्यारा ये समाज है, जो इस तरह की हत्याओं को अपनी धार्मिक/जातीय नफ़रत के चलते जायज़ ठहराता रहा है, जो पीड़ित पक्ष का नाम देखकर सत्ता को क्लीनचिट देता है।
Written by: Majid Majaz
Courtesy: National Speak
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं)
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