ब्रिटेन के नए नोट पर टीपू सुल्तान की वंशज नूर इनायत खान की तस्वीर होगी शामिल

ब्रिटेन के नए नोट पर टीपू सुल्तान की वंशज नूर इनायत खान की तस्वीर होगी शामिल

मिल्लत टाइम्स: नूर इनायत खान मैसूर के महाराजा टीपू सुल्तान की वंशज थीं। वही मशहूर टीपू सुल्तान जिन्होंने ब्रितानी शासन के सामने झुकने से इनकार कर दिया था। टीपू सुल्तान 1799 में अंग्रेजों के खिलाफ लड़ते हुए मारे गए थे। अब ब्रिटेन की सरकार ने नूर इनायत खान’ को 50-पाउंड मुद्रा नोट पर प्रदर्शित करने का फैसला किया है।

बैंक ऑफ इंग्लैंड ने हाल ही में 2020 से प्रिंट में जाने के लिए बड़े मूल्य नोट के नए बहुलक संस्करण की योजना की घोषणा की थी और संकेत दिया था कि यह नए अक्षरों पर संभावित पात्रों के लिए सार्वजनिक नामांकन आमंत्रित करेगा।

इस हफ्ते के शुरू में शुरू किए गए अभियान के पक्ष में एक ऑनलाइन याचिका ने बुधवार तक 1,200 से अधिक हस्ताक्षरों को आकर्षित कर लिया है, खान को पहली जातीय अल्पसंख्यक ब्रिटिश महिला माना जाता है।

बता दें की नूर का जन्म 1914 में मॉस्को में हुआ था लेकिन उनकी परवरिश फ्रांस में हुई और वे रहीं ब्रिटेन में। उनके अब्बा हिंदुस्तान से थे और सूफी मत को मानते थे। उनकी मां अमरीकन थीं लेकिन उन्होंने भी बाद में सूफी मत को अपना लिया था। दूसरे विश्व युद्ध के समय से परिवार पेरिस में रहता था।

लेकिन जर्मनी के हमले के बाद उन लोगों ने देश छोड़ने का फैसला किया। श्राबणी बसु नूर इनायत खान की याद में एक संगठन भी चलाती हैं। उन्होंने बताया, “नूर एक वालंटियर के तौर पर ब्रितानी सेना में शामिल हो गईं। वह उस देश की मदद करना चाहती थीं जिसने उन्हें अपनाया था। उनका मकसद फासीवाद से लड़ना था।”

बाद में वो एयरफोर्स की सहायक महिला यूनिट में भर्ती हो गईं। ये 1940 की बात है। फ्रेंच बोलने में उनकी महारत ने स्पेशल ऑपरेशन एग्जिक्यूटिव के सदस्यों का ध्यान अपनी ओर खींचा। इस गुप्त संगठन को ब्रितानी प्रधानमंत्री चर्चिल ने बनाया था जिसका काम नाजी विस्तारवाद के दौरान यूरोप में छापामार कार्रवाई को बढ़ावा देना था।

महज तीन साल के भीतर 1943 में नूर ब्रितानी सेना की एक सीक्रेट एजेंट बन गईं। श्राबनी बसु कहती हैं कि नूर एक सूफी थीं, इसलिए वे हिंसा पर यकीन नहीं करती थीं लेकिन उन्हें मालूम था कि इस जंग को उन्हें लड़ना था। नूर की विचारधारा की वजह से उनके कई सहयोगी ऐसा सोचते थे कि उनका व्यक्ति खुफिया अभियानों के लिए उपयुक्त नहीं है।

एक मौके पर तो उन्होंने यह भी कह दिया कि मैं झूठ नहीं बोल सकूंगी। बसु बताती हैं, “ये बात किसी ऐसे सिक्रेट एजेंट की जिंदगी का हिस्सा नहीं हो सकती हैं जो अपना असली नाम तक का इस्तेमाल न करता हो और जिसके पास एक फर्जी पासपोर्ट हो।”

ब्रिटेन के नेशनल आर्काइव्स के दस्तावेजों के मुताबिक इसके बावजूद नूर के आला अफसरों को लगता था कि उनका किरदार एक दृढ़ इरादे वाली महिला का है। उन्हें जो जिम्मेदारी दी गई, वो बहुत खतरनाक किस्म की थी। नूर को एक रेडियो ऑपरेटर के तौर पर ट्रेन किया गया और जून, 1943 में उन्हें फ्रांस भेज दिया गया।

इस तरह के अभियान में पकड़े जाने वाले लोगों को हमेशा के लिए बंधक बनाए जाने का खतरा रहता था। जर्मन सीक्रेट पुलिस ‘गेस्टापो’ इन इलेक्ट्रॉनिक सिग्नल्स की पहचान और इनके स्रोत को पकड़ सकती थी। बसु के मुताबिक उनकी खतरनाक भूमिका को देखते हुए कई लोग मानते थे कि फ्रांस में वह छह हफ्ते से अधिक जीवित नहीं रह पाएंगी। नूर के साथ काम कर रहे दूसरे एजेंटों की जल्द ही पहचान कर ली गई। उनमें से ज्यादातर गिरफ्तार कर लिए गए लेकिन नूर फरार होने में कामयाब रहीं।

इसके बाद भी जर्मन पुलिस की नाक के नीच नूर ने फ्रांस में अपना ऑपरेशन जारी रखा। लेकिन अक्टूबर, 1943 में नूर धोखे का शिकार हो गईं। श्राबनी बसु कहती हैं, “उनके किसी सहयोगी की बहन ने जर्मनों के सामने उनका राज जाहिर कर दिया। वह लड़की ईर्ष्या का शिकार हो गई थी क्योंकि नूर हसीन थीं और हर कोई उन्हें पसंद करता था।”


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